राजस्थान :- एक परिचय
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सांस्कृतिक संपदा की दृष्टि से संपन्न व समृद्ध, भक्ति और शौर्य (वीरता) का संगमस्थल तथा साहित्य, कला एवं संस्कृति की अजन त्रिवेणी राजस्थान' हमारे देश का क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य (मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनने के बाद) है। यह देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित है। यहाँ का सांस्कृतिक वैभव बेजोड़ है। साहसी, वीर, गौरवमयी संस्कृति, त्याग एवं बलिदान की प्रतिमूर्ति नारियों, शौर्य एवं उदारता आदि भावनाओं का सर्वाधिक संचार मानों संपूर्ण विश्व में इसी भूमि पर हुआ है। राजस्थान के लगभग मध्य से निकलने वाली तथा इसे दो जलवायवीय भागों में विभक्त करने वाली व राज्य की रीड की हड्डी कही जाने वाली प्राचीनतम अरावली पर्वतमाला व उससे प्रवाहित होने वाली अनेक महत्त्वपूर्ण सरिताएँ (नदियाँ) यथा बनास, बेड़च, बाणगंगा, कालीसिंध, मेनाल, लूणी आदि प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक कई मानव सभ्यताओं के उत्थान एवं पतन की साक्षी रही हैं। इस भू-भाग में निम्न घुरा-पाषाण युग, उत्तर-पाषाणकाल, कांस्ययुगीन सिंधु सभ्यता की मानव बस्तियाँ, प्राचीनतम ताम्रयुगीन मानव सभ्यताएँ एवं वैदिक सभ्यता खूब फल्ली-फूली और चिरकाल में इसी भूमि के गर्भ में विलीन हो गई, जिनके अवशेष उत्खनन में यदा-कदा पुरातात्त्विक अवशेषों के रूप में मिलते रहे हैं, जो यहाँ की समृद्ध प्राचीन धरोहर का दिग्दर्शन कराते हैं । यहाँ की शौर्य गाथाएँ, वीरों के पराक्रम के किस्से, लोकधर्मी कलाओं की समृद्ध व विराट विरासत सदियों से तपस्वी-मनस्वी की तरह रेत की चादर ओढ़े निस्वार्थ भाव से भारत माता की सांस्कृतिक विरासत को अपना सब कुछ न्यौछावर करती रही हैं और उसे विश्व में और समृद्ध बनाती रही हैं। राजस्थान का नाम आते ही जेहन में वीरता, साहस, स्वातंत्र्य प्रेम एवं देशभक्ति की गौरवशाली परम्परा उभर आती है। यह प्रदेश मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर करने वाले वीरों एवं प्रसिद्ध साधु-संतों की कर्मभूमि रहा है। यह प्रदेश शौर्य गाथाओं, पराक्रम के उदाहरणों एवं लोकधर्मी कलाओं की विराट विरासत को अपने में समेटे हुए है। इस मरु प्रधान प्रदेश को समय-समय पर विभिन्न नामों से पुकारा जाता रहा है। महर्षि वाल्मिकी ने इस भू-भाग के लिए "मरकान्तार' शब्द का प्रयोग किया है। राजस्थान' शब्द का प्राचीनतम प्रयोग राजस्थानीयादित्य वसंतगढ (सिरोही) के शिलालेख (विक्रम संवत् 682 में उत्कीर्ण) में हुआ है। इसके बाद 'मुहणोत नैणसी री ख्यात' एवं 'राजरूपक' नामक ग्रंथों में भी 'राजस्थान' शब्द का प्रयोग हुआ है। छठी शताब्दी में इस राजस्थानी भू-भाग में राजपूत शासकों ने अलग-अलग रियासतें कायम कर अपना शासन स्थापित किया। इन रियासतों में मेवाड़ के गुहिल, मारवाड़ के राठौड़, ढूंढाड़ के कच्छवाहा व अजमेर के चौहान आदि प्रसिद्ध राजपूत वंश थे। राजपूत राज्यों की प्रधानता के कारण ही कालान्तर में इस सम्पूर्ण भू-भाग को 'राजपूताना' कहा जाने लगा। राजस्थानी भु- भाग लिए 'राजपूताना' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1800 ई. में जॉर्ज थॉमस द्वारा किया गया था।कर्नल जेम्स टॉड' (पश्चिमी एवं मध्य भारत के राजपूत राज्यों के पॉलिटिकल एजेन्ट) ने इस प्रदेश को 'रायथान' कहा क्योंकि तत्समय स्थानीय बोलचाल एवं लौकिक साहित्य में राजाओं के निवास के प्रांत को 'रायथान' कहते थे। ब्रिटिशकाल में यह प्रांत 'राजपूताना' या 'रजवाड़ा' तथा अजमेर-मेरवाड़ा (अजमेर व आस-पास का भू-भाग) केनाम से पुकारा जाता था। इस भौगोलिक भू-भाग के लिए 'राजस्थान(Rajasthan )शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग कर्नल जेम्स टॉड ने राजस्थान के इतिहास पर 1829 में लंदन से प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध ऐतिहासिक कृति Annals and Antiquities of Rajasthan' (इसका अन्य नाम Central and Western Rajpoot States of India) में किया। स्वतंत्रता पश्चात् राज्य पुनर्गठन की प्रक्रिया के दौरान अलग-अलग नामकरण के पश्चात् अन्तत: 26 जनवरी, 1950 को औपचारिक रूप से इस संपूर्ण भौगोलिक प्रदेश का नाम 'राजस्थान' स्वीकार किया गया, तब अजमेर-मेरवाड़ा क्षेत्र इनसमें शामिल नहीं था। स्वतंत्रता के समय राजस्थान 19 देशी रियासतों, 3 ठिकाने- कुशलगढ़, लावा व नीमराणा तथा चीफ कमिश्नर द्वारा प्रशासित अजोर-मेरवाड़ा प्रदेश में विभक्त था। स्वतंत्रता के बाद 1950 तक अजमेर-मेरवाड़ा को छोड़कर सभी क्षेत्र राजस्थान में सम्मिलित हो गये थे। उस समय अजमेर-मेरवाड़ा के प्रथम एवं एक मात्र मुख्यमंत्री श्री हरिभाऊ उपाध्याय थे। अजमेर-मेरवाड़ा के विलय के बाद राजस्थान अपने वर्तमान स्वरूप में 1 नवम्बर, 1956 को आया। राज्य को वर्तमान में 33 जिलों में बाँटा गया है। प्रतापगढ़ को 33वाँ जिला बनाया गया है। राज्य के हर जिले की अपनी परंपराएं , समृद्ध सांस्कृतिक विरासत व विशेषताएं हैं |
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