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Maharana pratap :- हल्दीघाटी का युद्ध ( part-10)

• हल्दीघाटी का युद्ध •

भारत के वीर पुत्र महाराणा प्रताप और मुगल अकबर के बीच 

महाराणा प्रताप और चेतक का साथ




5000 चुने हुए सैनिकों को लेकर मानसिंह व शक्तिसिंह शहजादे सलीम के साथ 3 अप्रैल, 1576 ई. को मंडलगढ़ जा पहुंचे. शहजादा सलीम इस सेना का सेनापति था, परन्तु आक्रमण का पूरा सेहरा मानसिंह के सर पर था. सब जानते थे की ये आक्रमण मानसिंह के पहल में ही हो रहा है. 


इस सेना में मुग़ल सेना की चुनी हुई हस्तियाँ मानसिंह के साथ में थी- गाजी खां, बादक्शी,ल ख्वाजा गियासुद्दीन, आसफ खां आदि को साथ लेकर मानसिंह ने दो माह तक मांडलगढ़ में मुग़ल सेना का इन्तेजार किया. 


महाराणा प्रताप को जब यह पता लगा की शक्तिसिंह को साथ लेकर मानसिंह मेवाड़ पर आक्रमण के लिए चल पड़ा है, और मंडलगढ़ में रूककर एक बड़ी मुग़ल सेना का इन्तेजार कर रहा है, तो महाराणा प्रताप ने उसे मंडलगढ़ में ही दबोचने का मन बना लिया, परन्तु अपने विश्वसनीय सलाहकार रामशाह तोमर की सलाह पर राणा प्रताप ने इरादा बदल दिया. 


रणनीति बने गयी की मुगलों को पहल करने देनी चाहिए और उस पर कुम्भलगढ़ की पहाड़ियों से ही जवाबी हमला किया जाए. अपनी फ़ौज की घेरा को मजबूत करने के लिए महाराणा प्रताप कुम्भलगढ़ से गोगुंडा पहुंचे. उनके साथ उस समय झालामान,झाला बीदा, डोडिया भीम, चुण्डावत किशन सिंह, रामदास राठोड, रामशाह तोमर, भामाशाह व् हाकिम खां सूर आदि चुने हुए व्यक्ति थे. 


जून के महीने में बरसात के आरम्भ में मुगल सेना ने मेवाड़ के नै राजधानी कुम्भलगढ़ के चरों ओर फैली पर्वतीय श्रृंखलाओं को घेर लिया. कुम्भलगढ़ प्रताप का सुविशाल किला था, जो की प्रताप की समस्त गतिविधियों का केंद्र था. 


इसी जगह प्रताप का जन्म हुआ था और कहा जाता है की विश्व में चीन की दिवार के बाद सबसे लम्बी दीवारों में से एक है. मानसिंह तथा मुग़ल शहजादा ने सारी जानकारी प्राप्त कर यह रणनीति तैयार की कि प्रताप को चारो ओर से घेर कर उस तक रसद पहुँचने के सारे रास्ते बंद कर दिए जाए. 


कुम्भलगढ़ के बुर्ज से महाराणा प्रताप ने जब मुग़ल सेना और उसकी घेराबंदी का निरिक्षण किया तब वे समझ गए की राजपूतों के अग्निपरीक्षा के दिन आ गए है. 


जहाँ भी नजर जाते थी बरसाती बादलों के तरह फैले मुग़ल सेना के तम्बू नजर आ रहे थे. मुग़ल सेना का घेरा बहुत मजबूत था, इतना मजबूत था की उससे नजर बचाकर परिंदा भी कुम्भलगढ़ मे प्रवेश नहीं कर सकता था. मुग़ल सेना में अधिक संख्या भीलों और नौसीखिए की थी. 


तीर कमान, बरछी, भाले, और तलवारे ही उनके हथियार थे. मुग़ल सेना के पास तोपें थे और अचूक निशाना लगाने वाले युद्ध पारंगत तोपची थे. महाराणा प्रताप के पास एक भी टॉप नहीं थी पर उनका एक एक सैनिक अपना सर में कफ़न बंधकर निकला था, जान लेने और जान देने का जूनून प्रताप के हर सैनिक में था. 


मुग़ल सेना के निरिक्षण के बाद महाराणा प्रताप अपने प्रमुख सलाहकारों एवं सरदारों के साथ अपनी सेना के सम्मुख पहुंचे. और सैनिकों को सम्भोधित करते हुए कहा –“जान लेने और जान देने का उत्सव अब हमारे सिर में है, मुग़ल सेना काले घटाओं की तरह कुमलमेर की पहाड़ियों पर छा गयी है, एक लाख से अधिक मुग़ल सेना ने हमें इस आश को लेकर घेरा है की हम संख्या में कम है और विस्तार देख कर ही डर जायेंगे, परन्तु शायद वो भूल गए है की सूर्य की एक मात्र किरण अत्यंत अन्धकार को विदीर्ण करने के लिए काफी होती है. 


मुग़ल सेना का सेनापति भावी मुग़ल सम्राट शहजादा सलीम कर रहा है, और उसका मार्गदर्शन कर रहे है देश के दो गद्दार राजपूत मानसिंह और शक्तिसिंह. मानसिंह वो गद्दार है जिसने अपनी बहन को शहजादे सलीम से ब्याह दी और शक्तिसिंह इस मेवाड़ धरती का गद्दार है जो की दुर्भाग्यवश मेरा भाई है, उसे भाई कहते हुए मुझे लज्जा आती है, परन्तु यह सच है की आज उसने राजपूती शान का बट्टा लगाया है, वह मुग़ल सेना के साथ मिलकर अपनी ही धरती और अपने ही भाई में चढ़ाई करने आया है. 


शक्ति सिंह इस जगह से भली भांति परिचित है. वह घर का भेदी है, अगर आज वो उनके साथ नहीं होता तो हमारे बहुत से रहस्य शत्रुपक्ष को पता नहीं लग पाते, और उस स्थिति का लाभ उठा कर हम शत्रु पक्ष को अनेक तरह से पटखनी दे सकते थे. 


परन्तु ये हमारे मेवाड़ धरती का दुर्भाग्य है की उसी का एक बेटा विदेशी मुग़ल सेना को लेकर उसी की मनंग उजाड़ने आया है.परन्तु साथियों विजय सिर्फ हमारी होगी क्योंकि ये हमारी स्वाधीनता बचाने की लड़ाई है, और हम अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना खून बहाना भलीं भांति जानते है.


हम गिन गिन कर शत्रुओं का सिर काटेंगे. हमारे एक एक सैनिकों को पच्चीस पच्चीस मुग़ल सैनिकों का सर काटना है. 


हमारा हौसला बुलंद हो, हमारी भुजाओं की ताकत के सामने, हमारे, युद्ध कौशल, व् देशभक्ति के जूनून के सामने एक भी शत्रु सैनिक यहाँ से जीवित बचकर नहीं जा पायेगा. हम एक एक को कुमाल्मेर की पहाड़ियों में दफ़न कर देंगे. 


आओ प्रतिज्ञा करें की हम एक एक सैनिकों को मुगलों के पच्चीस पच्चीस सैनिकों के सिर काटने है, हमारे जीते जी शत्रु हमारी मातृभूमि पर कदम नहीं रख सकेगा, इसके लिए चाहे हमें कोई भी कीमत चुकाने पड़े. 


हम इन मुग़ल सेना को बता देंगे की हम भले ही मर जाये पर युद्ध भूमि से पिछे हटना हम राजपूतों के खून में नहीं है. इसप्रकार से महाराणा प्रताप की जोरदार आवाज से सैनिकों में प्रोत्साहन भरा जाने लगा, उनके इस बातों को सुनकर उनके सैनिकों का मनोबल आसमान की उचाईयों में पहुंचा दिया. 


सबने जोरदार अपने तलवारे खिंची और और बुलंद आवाज में घोषणा की कि अब ये तलवार शत्रु का रक्त पी कर ही म्यान में वापस जाएगी. 


दोनों ओर की सेना तैयार हो गयी परन्तु हमला नहीं हुआ, महाराणा प्रताप ने मन बना लिया था की पहले मुग़ल सेना पहल करेगी और उसके हमला करते ही हमारी सेना उनपर टूट पड़ेगी परंतू मान सिंह ने यह युद्धनिति तैयार की थी की मुग़ल सेना सीधे हमला कर पहाड़ियों के बीच में नहीं फसेंगी, वो उनको बस कुछ दिन घेरे रखेंगे ताकि उनका रसद उनतक ना पहुँच सके और महाराणा प्रताप की सेना पहाड़ियों से उतरकर खुले मैदान में आ सके जिससे उन्हें हराना ज्यादा आसान हो जाये. शहजादा इस पक्ष में था की आगे बढ़कर उनपर आक्रमण किया जाये ताकि युद्ध जल्दी ख़त्म हो सके.


शहजादे सलीम मुग़ल सेना की एक टुकड़ी आगे बढ़कर महाराणा प्रताप में आक्रमण करने का निर्देश दे दिया, मानसिंह ने उसे समझाने का प्रयत्न किया परन्तु वो नहीं माना. 


मुगलसेना ने जैसे ही हल्दीघाटी के संकरे घाटी में प्रवेश की राणा प्रताप की सेना ने एक एक कर कई मुग़ल सेना को मौत के घाट उतार दिया क्योंकि हल्दीघाटी की प्राकृतिक बनावट कुछ इस प्रकार से थी की केवल एक बार में एक सैनिक अपने घोड़े के साथ आगे बढ़ सकती थी, इस संरचना का लाभ उठा कर राणा प्रताप के सैनिकों ने मुग़ल सेना के कई सैनिकों को मार डाला, उस समय ये देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो, ये युद्ध केवल राणा प्रताप के हाथ में ही है, परन्तु तुरंत ही सलीम ने अपने सेना को पीछे हटने का संकेत दे दिया. 


अब उन्हें ये समझ नहीं आ रहा था की प्रताप तक पहुँचने का कौन सा मार्ग लिया जाए, ऐसे समय में शक्तिसिंह निकलकर आया और उसने शहजादे सलीम के सामने हल्दीघाटी में सेना को प्रवेश कराने की जिम्मेदारी ली. शक्तिसिंह के मार्गदर्शन में मुग़ल सेना हल्दीघाटी के मार्ग से पहाड़ी क्षेत्र में प्रवेश करने लगी. 


महाराणा प्रताप ने जब ये देखा की मुग़ल सेना हल्दी घाटी के पीछे वाले रास्ते से आगे बढ़ रही है तो उन्हें ये समझते देर ना लगी की किसने उन्हें ये रास्ता सुझाया होगा. अब राणा प्रताप ने आगे बढ़कर हल्दीघाटी में ही मुगल सेना को दबोचने की रणनीति बनाई. राणा का आदेश पाते ही राजपूत नंगी तलवार लिए, मुग़ल सेना पर टूट पड़े. 


भीलो का समूह जहर बुझे तलवार से मुग़ल सेना का संहार करने लगी. पहले ही हमले में राणा प्रताप ने मुग़ल सेना के छक्के छुड़ा दिए, देखते ही देखते मुग़ल सेना की लाशे बिछनी लगी. मुग़ल सेना में, मानसिंह सेना की बीचोबीच था. 


सैयद बरहा दाहिनी ओर, बाई ओर गाजी खां बादक्शी था, जग्गनाथ कछावा तथा गयासुद्दीन आसफ खां इरावल में थे. आगे के भाग में चुना-ए-हरावल नाम का विख्यात मुग़ल सैनिक था जो की कुशल लड़ाकू माना जाता था. 


राणा प्रताप के सेना में बीच में स्वयं राणा प्रताप और दाहिनी ओर रामशाह तोमर तथा बाई ओर रामदास राठोड था. राणा प्रताप ने मुग़ल सेना पर अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी, अतिरिक्त सेना के रूप में केवल पोंजा भील था, जो अपने साथियों के साथ पहाड़ियों में छिपा रहा.. शहजादा सलीम अपने हाथी पर स्वर था. 


जब उसने देखा की महाराणा प्रताप अपने तलवार से मुग़ल सैनिकों को गाजर मुल्ली की तरह कटता जा रहा है और मुग़ल सेना के पैर उखड़ने लगे है, तो उसने तोंपे चलने का आदेश दे दिया. तोंपो के गोले जब आग उगलने लगे तो राणा प्रताप के सेना के पास मुग़ल सेना के तोपों का कोइ जवाब ना था. 


उनकी ढालें, तलवारे, बरछे और भाले उनके तोपों के आगे बौने पड़ने लगे. अचानक से लड़ाई का रुख ही बदल गया और राजपूतों की लाशे बिछनी लगी. महाराणा ने राजपूत सैनकों की एक टुकड़ी को आदेश दिया की आगे बढ़कर उनकी तोपें छीन ली जाए, सैंकड़ो सैनिक अपनी जान हथेली में रख कर उन तोंपो को छिनने के लिए आगे बढ़ गए, परन्तु इसके विपरीत तोप के गोले उनगे शरीर की धज्जियाँ उड़ाने लगे. 


ये देख कर महाराणा को बहुत दुःख हुआ, परन्तु यह एक कडवी सच्चाई थी, तोंपो की मार को परवाह किये बगैर राणा प्रताप की सेना दुगुनी उत्साह के साथ मुग़ल सेना पर टूट पड़ी. 


स्वयं राणा प्रताप घाटी से निकलकर गाजी खां की सेना में टूट पड़े, जो की बहुत देर से घाटी के द्वार में कहर ढा रही थी, राणा प्रताप ने गाजी खां के सेना की परखच्चे उडा दिए, इस प्रकार मुग़ल सेना और राणा  प्रताप के बीच दो दिन तक युद्ध हुआ, परन्तु कोई भी नतीजा निकल कर सामने नहीं आया. 


दोनों ओर से सैनिकों की लाशे बिछ गयी थी, पूरा युद्ध क्षेत्र लाशो से पट गया था. मुग़ल सेना के तोंपो से निकले गोलों ने राजपूत सेना में कहर ढाया था. संख्या में चार गुनी होते हुए भी मुग़ल सेना राजपूत सेना के सामने टिक नहीं पा रही थी. 


युद्ध के दौरान कई ऐसे मौके आये जब मुग़ल सेना भाग खड़े हुए, परन्तु उन्हें नया उत्साह देकर वापस युद्ध के लिए भेज दिया गया. हल्दी घाटी के युद्ध में त्तिसरा दिन निर्णायक रहा, अपने जांबाज सैनिकों के लाशों के अम्बार देखकर महाराणा प्रताप बौखला गए थे. 


सवानवदी सप्तमी का दिन था, आकाश में बदल भयंकर गर्जना कर रहे थे.. आज राणा प्रताप अकेले ही पूरी फ़ौज बन गए थे. दो दिन तक वो अपने परम शत्रु मानसिंह को ढूंढते रहे जो युद्ध में मुलाकात करने की धमकी दे गया था. राणा प्रताप का बहुत अरमान था की वो उससे युद्ध करे और अपना शोर्य दिखाए, परन्तु मानसिंह अपने सेना के बीचोबीच छिपा रहा. 


आज के युद्ध में महाराणा प्रताप ने फैसला कर लिया था की वो मानसिंह को अवश्य ढूँढ निकालेंगे, वो बहुत ही खूबसूरत सफ़ेद घोड़े चेतक में बैठे शत्रुओं का संहार करते करते मानसिंह को ढूँढने लगे. सैनिकों का सिर काटते हुए वो मुग़ल सेना के बीचो बीच जा पहुंचे. 


उन पर रणचंडी सवार थी, देखते ही देखते उन्होंने सैंकड़ो मुगलों की लाशे बिछा दी. महाराणा के साथ उनके चुने हुए सैनिक थे वो जिधार निकल जाते थे मुग़ल सेना में हाहाकार मच जाता था, मुग़ल युद्ध भूमि को छोड़ भागने को मजबूर हो जाते थे, मुग़ल सेना अब उनसे सीधे सीधे लड़ाई करने में भयभीत हो रही थी, महाराणा मुग़ल सेना को चीरते हुए आगे बढ़ते गए. कुछ दूर जाने के बाद एक एक कर के उनके सहायक सैनिक ढेर होते गए. 


अब वो मुग़ल सेना के बीचो बीच लगभग अकेले थे, तभी उनकी नजर शहजादे सलीम में पड़ गयी, सलीम एक बड़े हाथी में सवार होकर लोहे की मजबूत सलाखों से बने पिंजड़ा में सुरक्षित बैठा युद्ध का सञ्चालन कर रहा था. 


महाराणा ने सलीम को देखा और चेतक को उसके ओर मोड़ लिया, सलीम ने जैसे ही देखा की महाराणा उसके ओर आ रहा है उसने अपने महावत को आदेश दिया की हाथी को दूसरी दिशा में मोड़ कर दूर ले जाया जाये, जब तक वो उनके पास पहुँचते एक कुशल मुगल सेना की टुकड़ी ने उन पर जान लेवा हमला किया परन्तु महाराणा प्रताप ने सभी का वार को अच्छी तरह से बेकार कर दिया और सबको मौत के घाट उतार दिया.  


अचानक से महाराणा की नजर मान सिंह पर पड़ी और उसे देखते ही महाराणा का खून खौलने लगा,मानसिंह हाथी पर सवार था, उसके पास अंगरक्षकों का एक बड़ा जमावड़ा था, मानसिंह के सुरक्षा व्यूह को तीर की तरह चीरते हुए, महाराणा का चेतक हाथी के बिलकुल ही नजदीक पहुँच गया, मानसिंह को ख़त्म करने के लिए महाराणा प्रताप ने दाहिने हाथ में भाला संभाला और चेतक को इशारा किया की वह हाथी के सामने से उछल कर गुजरे, चेतक ने महाराणा का इशारा समझ कर ठीक वैसा  ही किया, परन्तु चेतक का पिछला पैर हाथी के सूंढ़ से लटका तलवार से चेतक का पैर घायल हो गया,  


परन्तु महाराणा उसे देख ना पाए, घायल होने के क्रम में ही महाराणा ने पूरी एकाग्रता से भाला को मानसिंह के मस्तक में फेंक डाला, परन्तु चेतक के घायल होने के कारण उनका निशाना चूक गया, और भला हाथी में बैठे महावत को चीरता हुआ लोहे की चादर में जा अटका, तबतक महाराणा की ओर सभी सैनिक दौड़ पड़े, और मानसिंह महाराणा के डर से कांपता हुआ हाथी के हावड़े में जा छिपा,भला हावड़े से टकरा कर गिर गया, राजा मानसिंह को खतरे में देख माधो सिंह कछावा महाराणा पर अपने सैनिकों के साथ टूट पड़े, उसने महाराणा पर प्राण घातक हमला किये. 


उसके साथ कई सैनिकों ने महाराणा पर एकसाथ हमला किये जिससे महाराणा के प्राण संकट में पद गए. एक बरछी उनके शरीर में पड़ी और महाराणा लहू लुहान हो गए. उसी समय एक और तलवार का वार उनके भुजा को आकर लगी. 


परन्तु अपनी प्राणों की परवाह किये बगैर महाराणा लगातार शत्रुओं से लोहा लेते रहे. अपने स्वामिभक्ति दिखा रहा चेतक भी हर संभव महाराणा का साथ दिए जा रहा था, चेतक का पिछला पैर बुरी तरह से घायल हो चूका था, परन्तु अश्वों की माला कहा जाने वाला अश्व दुसरे अश्वों की तरह घायल हो जाने पर युद्ध भूमि में थककर बैठ जाने वालों में से नहीं था.


झालावाडा के राजा महाराणा प्रताप के मामा ने जब ये देखा की महाराणा प्रताप बुरी तरह से घायल हो गए है, और लगातार शत्रु से लड़े जा रहे है, तब उन्होंने अपना घोडा दौडाते हुए महाराणा प्रताप के निकट जा पहुंचे, उन्होंने झट से महाराणा का मुकुट निकला और अपने सिर में पहन लिया, फिर राणा से बोले-“तुमको मातृभूमि की सौगंध राणा अब तुम यहाँ से दूर चले जाओ, तुम्हारा जीवित रहना हम सबके लिए बहुत जरूरी है. 


महाराणा ने उनका विरोध किया परन्तु कई और सैनिको ने उनपर दवाब डाला की आप चले जाइये, अगर आप जीवित रहेंगे तब फिर से मेवाड़ को स्वतंत्र करा सकते है, महाराणा का घोडा चेतक अत्यंत संवेदनशील था, अपने स्वामी के प्राण को संकट में देख तुरंत ही उसने महाराणा को युद्ध क्षेत्र से दूर ले गया. 


मन्नाजी अकेले ही मुग़ल सेना के बीच घिर चुके थे, मुग़ल सेना उन्हें महाराणा समझ कर बुरी तरह से टूट पड़े, उन्होंने बहुत देर तक अपने शत्रुओं का सामना किया परन्तु अंत में वीर गति को प्राप्त किया. मन्ना जी के गिरते ही राणा प्रताप के सेना के पैर उखड़ गए.

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